विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश भारत में लोकतंत्र के महापर्व की शुरुआत 11 अप्रैल से होने वाली है। इस समर में देश भर की अनेकों राजनैतिक पार्टियां हिस्सा लेंगी। इस दौरान देश भर के मतदाताओं का वोट पाने के लिए सभी दल एक-दूसरे से बढ़ चढ़कर चुनावी वादे कर रहे हैं। लेकिन इन सभी चुनावी मुद्दों में प्रदूषण से निपटने का ज़िक्र कहीं भी दिखाई नहीं देता।
इस दौर में जहां हर एक लाख में 65 लोगों की जान प्रदूषण की वजह से जाती है, ऐसे में सभी पार्टियों के घोषणापत्रों में इसका ज़िक्र न होना चिंता का विषय है।
बात अगर सिर्फ देश की राजधानी और इससे सटे क्षेत्रों की करें तो यहां का वायु गुणवत्ता सूचकांक साल के अधिकांश दिनों में "खतरनाक" स्थिति में बना रहता है। वायु गुणवत्ता सूचिकांक को प्रभावित करने वाले कारकों में वाहन, निर्माण कार्य आदि बराबर ज़िम्मेदार हैं। प्रदुषण एक ऐसा धीमा ज़हर है जिसका प्रभाव तुरंत नहीं दीखता बल्कि स्वास्थ्य को धीमी रफ़्तार से हानि पहुंचाता है।
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दिल्ली में प्रदूषण की स्थिति के प्रति सरकार का रवैया :
दिल्ली में प्रदूषण में लगातार वृद्धि का कारण हैं वाहनों से निकलने वाला धुआँ और लगातार चल रहे निर्माण कार्य आदि। आंकड़ों की बात करें तो दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन के लिए 15 हज़ार बसों के बजाय सिर्फ 3499 बसें हैं। वहीं राज्य में निजी वाहनों की संख्या 1 करोड़ 8 लाख पहुँच चुकी है। इसके अलावा कूड़ा निस्तारण का कोई प्रभावी तरीका नहीं अपनाया जाता, जिसके चलते कूड़े के ढेरों में जगह-जगह आग लगा दी जाती है। प्रदूषण के प्रति सरकार का यह रवैया स्थिति को को बद से बदतर बना रहा है।
दिल्ली में प्रदूषण के आंकड़े :
दिल्ली में फैले प्रदूषण का सबसे ज्यादा 39 फीसद हिस्सा वाहनों से निकलने वाले धुएं से आता है।
वहीं 22 फीसदी भागेदारी औद्योगिक क्षेत्रों की है।
इसके अलावा 18% प्रदूषण हवा के साथ उड़ कर आने वाली धूल के कारण होता है।
जबकि 6% प्रदूषण रिहायशी इलाकों से आ रहा है और 3% हिस्सेदारी ऊर्जा संयत्रों की है।
इन सब के अलावा 12% प्रदुषण अन्य श्रोतों से हो रहा है।
इस समय प्रदूषण बड़े पैमाने पर जनजीवन को प्रभावित कर रहा है। इसलिए अब अपेक्षा है कि राजनैतिक पार्टियों को इस समस्या को गंभीरता से लेते हुए इसका समाधान निकलने के लिए प्रतिबद्ध बनना चाहिए।
Image Credit: Medibulletin
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