भारत एक कृषि प्रधान देश है, यह दशकों पुराना तथ्य है जिसे अब कहावत भी माना जाता है। 2011 की कृषि जनगणना के अनुसार, 1300 मिलियन भारतीय आबादी का लगभग 61.5 प्रतिशत ग्रामीण है जो कृषि पर निर्भर है। कृषक परिवारों की संख्या 159.6 मिलियन है।
भारत में उपलब्ध कुल जल का लगभग 80 प्रतिशत पानी कृषि कार्यों के लिए खर्च होता है। कृषि के लिए आवश्यक पानी का मुख्य स्रोत मॉनसून है, देश में तीन से चार महीनों तक रहता है। मॉनसूनी बारिश की अच्छी मात्रा ना केवल फसलों के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि लाखों किसानों की आजीविका के लिहाज़ से भी बहुत जरुरी है।
हालांकि, जलवायु में हो रहे बदलाव इस स्थिति को घातक बना रहा है। इसके पीछे एक बहुत ही सरल तर्क है। गर्म हवा ज्यादा पानी संरक्षित करती है। इसका मतलब है कि अधिक बारिश देने के लिए हवा में भारी मात्रा में पानी की जरुरत होती है। जलवायु परिवर्तन के कारण हाल के ही दिनों में लंबे समय तक सूखे जैसे हालात रहे और लगातार बाढ़ आई है।
इस समय स्थिति गंभीर हो गई है। एक स्थिर मानसून के आधार पर, दक्षिण एशियाई किसानों ने हजारों वर्षों से काफी व्यवस्थित तरीके अपनाए हैं। इस बात से इनकार नहीं कर सकते हैं कि बाढ़ और सूखे पहले के समय में भी होते थे। लेकिन वर्तमान में इसमें कुछ ज़्यादा ही उथल-पुथल की स्थिति देखने को मिल रही है।
फसल खराब होने के मुख्य कारण है, बारिश की अधिकता या कमी या कभी-कभी बारिश का न होना भी है। जब यह स्थिति आती है, तो किसानों के पास कोई उपाय नहीं बचता है। लेकिन, अपना मेहनताना निकालने के लिए किसान अपनी आजीविका को भी दांव पर लगा देते हैं। यह स्थिति आसान होती अगर उनके पास कोई और काम करने का विकल्प होता। जो भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए बिलकुल भी ठीक नहीं है।
इस स्थिति को तभी हल किया जा सकता है जब पूरा समुदाय जलवायु परिवर्तन से संबंधित समस्याओं से निजात के लिए एक साथ आए। ऐसा नहीं है कि इस संकट को हल करने के लिए अब तक कोई कदम नहीं उठाया गया है। उदाहरण के तौर पर, सूखे की स्थिति को दूर करने के लिए बुंदेलखंड में छोटे डैमों को पुनर्जीवित किया गया।
इसके अलावा पश्चिम बंगाल के गांवों में युवा महिलाओं ने अपने खेतों से खरपतवार और कीट साफ करने के लिए बत्तख पालने शुरू किए। हालांकि, इस स्थिति से निपटने के लिए और भी ज्यादा प्रयासों की जरुरत है।
इस समय चल रही परिस्थितियों का स्पष्ट रूप से मतलब है कि विकास केवल मेट्रो शहरों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। बल्कि, उन गांवों या कस्बों तक भी पहुंचना चाहिए, जिन्हें वास्तव में इसकी जरूरत है।
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