इस समय दुनियाभर में सुनामी, तूफ़ान, भूकंप, बाढ़ और सूखे जैसी मौसमी हलचलें बढ़ती जा रही हैं। इसके लिए कहीं ना कहीं मनुष्य द्वारा प्रकृति के साथ की जा रही छेड़छाड़ को ज़िम्मेदार माना जा रहा है। पिछले कई दशकों से पृथ्वी का तापमान निरंतर बढ़ रहा है जिससे पर्यावरण बदल रहा है और भीषण तबाही वाली प्रकृतिक आपदाएँ दुनियाभर के देशों में देखने को मिल रही हैं।
बढ़ते औद्योगीकरण, वाहनों के अत्यधिक इस्तेमाल और जंगलों की कटाई के कारण ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है जिससे वायुमंडल में ऊर्जा का असंतुलन पैदा हो गया है। इसके कारण पृथ्वी की सतह से निकलने वाली गर्मी वायुमंडल से ऊपर जाने की बजाए निचली सतह पर मौजूद गैसों की चादर के कारण लगभग 90% नीचे ही रह जाती और समुद्री क्षेत्रों पर फैलती जा रही है जिससे समुद्र की सतह का तापमान बढ़ रहा है और यह ग्लोबल वार्मिंग की ओर संकेत कर रहा है।
समुद्र की सतह में कैद होने वाली यही गर्मी अचानक समुद्री तूफ़ान और भीषण बारिश जैसी मौसमी हलचलों कारण बनती है। इसके चलते उठने वाले तूफानों की क्षमता भी काफी अधिक होती है और यह लंबे समय तक बने रह सकते हैं जिससे प्रभावित क्षेत्रों को बड़ी तबाही झेलनी पड़ती है।
तापमान में वृद्धि के कारण हवा में पहले से ही मौजूद आर्द्रता की क्षमता बढ़ जाती है। जब भी तापमान में वृद्धि 1 डिग्री की होती है तो हवा में नमी 7 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। इसी वजह से मौसम में होने वाली हलचल विकराल हो जाती है। भीषण बारिश, बादल फटने और अचानक बाढ़ आने की घटनाएँ देखने को मिलती हैं।
मौसम की इन हलचलों के कारण ही भूस्खलन और यातायात से जुड़ी तबाही होती है। बड़े पैमाने पर जान और माल को नुकसान पहुंचता है। ऐसी ही हलचलें हाल ही में भारत के भी कुछ भागों में देखने को मिलीं। केरल में अगस्त में मौसम के असंतुलन ने तबाही मचाई। हिमाचल प्रदेश में भी मौसम का उग्र रूप देखने को मिला।
पिछले दिनों से जिस तरह के बदलाव दुनियाभर में दिखाई दे रहे हैं उस पर विशेषज्ञों का मानना है कि आने वाले दिनों में प्रकृतिक आपदाएँ बढ़ सकती हैं। आपदाओं की ना सिर्फ संख्या बढ़ेगी बल्कि दायरा भी और अधिक हो जाएगा। इसे देखते हुए ज़रूरत है कि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम किया जाए, जंगलों और वनों को कटने से बचाया जाए, पृथ्वी से लगातार घट रही हरियाली को बढ़ाया जाए। अन्यथा हमारी आने वाली पीढ़ी को हमारी गलती की सज़ा भुगतनी होगी।
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